३१ मई, १९६९

 

    परसों रात मै तीन घंटेसे अधिक श्रीअरविदके साथ रही । और मै उन्हें वह सब बता रही थी जो ओरोवीलके लिये आनेवाला है । बड़ी मजेदार चीज थी । खेल-कूद थे, कला थी, वहां पकानेका काम भी था! परंतु वह सब बहुत प्रतीकात्मक था । मै मानों एक बहुत बड़े भूदृश्य- के आगे, मानों एक मेजपर उन्हें यह सब समझा रही थी, मै उन्हें यह बतला रही थी कि शारीरिक व्यायाम और खेल-कूदकी व्यवस्था किस सिद्धांतपर की जायगी । वह बिलकुल स्पष्ट था, बिलकुल यथार्थ था । मै मानों एक प्रदर्शन कर रही थीं । मै उन्हें एक छोटे पैमानेपर, जो होनेवाला है उसका छोटा-सा प्रतिरूप दिखा रही थी । मै चीजोंको और मनुष्योंको इधरसे उधर कर रही थी (शतरंजके मुहरोंको इधर-उधर करनेकी मुद्रा) । वह बहुत मजेदार था और उन्हें भी मजा आ रहा था. वे संगठनके सामान्य सिद्धांत बतला रहे थे (पता नहीं, इसे कैसे समझाया जाय) । वहां कला थी, और बहुत सुन्दर थी । काफी अच्छी थी । भवन-निर्माणके किस सिद्धांतपर, मकानोको किस तरह मनोहर और सुन्दर बनाया जाय । और फिर रसोईघर मी था, यह ऐसा रोचक था । हर एक अपना अन्वेषण लेकर आया है... । यह तीन घंटेसे ज्यादातक चलता रहा -- रातके तीन घंटे, यह बहुत विशाल था! बहुत मजेदार ।

 

     फिर भी, धरतीकी परिस्थितियां इस सबसे बहुत दूर मालूम होती है.......

 

(कुछ हिचकिचाहटके बाद) नहीं.. - वह यही तो था, वह धरतीके लिये ''पराया'' नहीं लगा । वह सामंजस्य था । चीजोंके पीछे एक सचेतन सामंजस्य. शारीरिक व्यायामों और खेल-कूदके पीछे एक सचेतन सामंजस्य, साज-सज्जा और कलाके पीछे एक सचेतन सामंजस्य; भोजनके पीछे एक सचेतन सामंजस्य

 

     मेरा मतलब है कि यह सब इस समय धरतीपर जो कुछ है उससे एकदम उलटा है।

 

नहिं...

 

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   नहीं?

 

 मै आज 'क' से मिली थी.. मैं उससे कह रही थीं कि कला, खेल-कूद, भोजन आदि सब चीजोंके लिये पूरी व्यवस्था और संगठन सूक्ष्म जगत् में तैयार है -- नीचे आने बार शरीर धारण करनेके लिये तैयार है - मैंने उससे कहा ''बस, जरूरत है मुट्ठी-भर मिट्टीकी (अंजलि-सी बनाते हुए), एक मुट्ठी-भर मिट्टीकी जरूरत है जहां पौधा उग सके. । हमें मुट्ठी- भर मिट्टी खोजनी चाहिये ताकि यह पनप सकें... ।''

 

 ( मौन)

 

मालूम नहीं यह ठीक बोध है या नहीं, पर कई महीनोंसे मुझे ऐसा लगता है कि इससे पहले धरती कभी इतने अंधकारमें नहीं रही । मुझे लगता है कि यह दुर्जेय अंधकार है ।

 

 हां, हां, दोनों चीजें हैं । यह सच है ! संभ्रांति - यह संभ्रांति ही है, -- अंधकारमय संभ्रांति, हां । अंधकारमय अस्तव्यस्तता, लेकिन यह तो श्रीअरविद हमेशा कहते आये हैं : ज्योतिके उदयसे पहले संभ्रांति हमेशा ही और मी ज्यादा घनी और अंधकारमय हो जाती है । यह ऐसा ही है । यह अंधकारमय संभ्रांति प्रतीत होती है । और चीनी लोग...

 

माताजी, क्या आप जानती हैं कि आजकल पश्चिममें माओत्से-तुगकी पुस्तकें सबसे ज्यादा प्रभाव डाल रही हैं । (केवल प्रभाव ही नहीं, बल्कि युवा पीढ़ी उन्हें पड़ती और निगलती है ।)

 

क्या कहता है वह आदमी?

 

      वह कहता है : ''शक्ति बंदूककी नलीसे उपजती है ।',

 

 (माताजी चुप रहती हैं)

 

पश्चिममें आज यही पढ़ा जाता है । और पिछली बार जिस पुस्तकका सबसे ज्यादा शोर रहा, उसका नाम है ''अभागा'' दा ऐसा ही कुछ । यह हिंसाका खुला समर्थन है : हिंसा दूरा

 

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     शक्ति हथियानी चाहिये । ऐसी चीजें ही पश्चिममें सफलता पा रही है, इन्हें चीजोंको सब विद्यार्थी लीलते हैं । '

 

ओह!   हिंसाका समर्थन

 

           हिंसाका मिशन ।

 

 यह हैं प्राण अपनी पूर्णतामें ।

 

                  जि  !

 

 ओह मैंने जो अंतर्दर्शन देखे हैं इससे उनकी बात समझमें आती है । मै सोचती थी... मैं अपने शरीरको दोष दे रही थी, मैं कह रही थी : यह बेचारा शरीर, इसमें दुर्भाग्यपूर्ण पुराण-पंथीपन भरा है : हमेशा भयंकर, भयंकर कल्पनाएं - और वे कल्पनाएं न थी, वह जो कुछ हो रहा है उस- के बारेमें सचेतन था... ओह!...

 

   तुमने अभी जो कहा वह बहुत मजेदार है, क्योंकि कल ही (इन दिनों, पिछले तीन दिनमें), वस्तुओंकी भयंकरताके प्रत्यक्ष दर्शनके सामने यह शरीर, यह शरीर रोया है... (यह शरीर भावुकतासे एकदम उलटा है, कभी, कमी भावुक नहीं रहा) । स्वभावतः, भौतिक रूपसे उसे रोनेकी आदत कभी न थी, लेकिन... इसने रोकर आंतरिक तीव्रताके माथ कहा : ''ओह! यह जगत् किसलिये है? '' इस प्रकार वह इतना... इतना अधिक भयंकर, दुःखी, दयनीय था... इतना दयनीय था और... इतना भयंकर...

 

   यह फ्रांट्ज फानोनकी पुस्तक ''रेचेड आफ द अर्थ'' की बात है जिसकी मुख्य बात यह है : ''केवल हिंसा ही फलदायक है । हिंसा लोगोंको एक साथ बांधती है; प्रत्येक व्यक्ति एक बड़ी शृंखलाकी एक कड़ी, एक वीर हिंसात्मक संगठनका अंग है जो ऊपर उमड़ आया है ।', इस पुस्तककी भूमिका जां पाल सार्त्रने लिखी है जो और भी ज्यादा स्पष्ट शब्दोंमें कहता है : ''अदम्य हिंसा... मनुष्यका अपने-आपको नये सिरेस बनाना है ।'' ''क्रोधोन्मत'' होकर ही ''अभागे धरतीवासी मनुष्य बन सकते हैं ।'' ''किसी यूरोपीयको गोलीसे उड़ा देनेका अर्थ है एक पंथ दो काज... । उसके बाद बच रहते है एक तो मृत मनुष्य और एक स्वतंत्र मनुष्य ।''

 

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 ओह!... लेकिन तुरंत ही उसे 'उत्तर' मिल गया -- वह शब्दोंमें उत्तर न था, वह केवल... मानों एक विशालता 'प्रकाश' में खुल रही थी । उसके बाद कहनेके लिये कुछ नहीं बचा ।

 

    लेकिन 'वह' विशालता यह कैसे बन सकती है?... पता नहीं । प्रश्न : 'वह' यह कैसे बन गया? वह मेरे पास इस रूपमें आया : '' 'वह', वह 'अद्भुत', यह घिनौनी, डरावनी भीमाकार वस्तु कैसे बन गया? ''

 

   लेकिन मै इसे फिरसे 'उस' में बदलनेकी प्रक्रिया नहीं जानती... । प्रक्रिया है... अधित्याग (कैसे कहा जाय?), आत्म-दान (वह नहीं) । लेकिन उसे हर चीज, हर चीज, ऐसी वीभत्स लगती थी : एक पूरा दिन, बहुत बहुत, बहुत कठिन रहा । लेकिन अजीब बात है, मैं उस समय जानती थी कि सिद्धार्थ बुद्धको जो अनुभूति हुई थी, यहां ठीक उसीको दोहराया जा रहा था और उन्हेंने इसी अनुभूतिमें कहा था : बाहर निकलनेका बस एक ही मार्ग है. और वह है निर्वाण । इसके साथ-ही-साथ मै सच्ची चेतनाकी स्थितिमें थी : एक उनका समाधान था और दूसरा सत्य समाधान । वह सचमुच मजेदार था । बौद्ध समाधान किस प्रकार एक पग मात्र था - बस एक पग । उसके परे (दूसरी पंक्तिमें नहीं, उसीके परे) सत्य समाधान है । यह एक निर्णायक अनुभूति थी ।

 

 (लंबा मौन)

 

    लेकिन आखिर यह सृष्टि है क्या?... हां, अलगाव, फिर दुष्टता, कुरता -- हम कह सकते है कि नुकसान पहुंचानेकी प्यास - और फिर दुःख, दुःख पहुंचानेकी खुशी, और फिर रोग, विघटन और मृत्यु - विनाश । यह सब एक ही चीजके भाग है । आरिवर हो क्या गया है?... मुझे जौ अनुभूति हुई थी वह इन सब चीजोंकी -- अवास्तविकताकी थी, मानों तुम एक अवास्तविक मिथ्यात्वमें प्रवेश कर गायें हों और जैसे ही तुम उस- भैंसे बाहर आते हो सब कृउछ गायब हो जाता है - उसका अस्तित्व नहीं रहता, वह होता ही नहीं । यह बड़ा भयंकर है! जो हमारे लिये इतना वास्तविक, इतना ठोस, इतना भयावह है, उस सबका कोई अस्तित्व ही नहीं । वह है.. तुमने 'मिथ्यात्व' में प्रवेश किया है । क्यों? कैसे? क्या?

 

    लेकिन इस शरीरने अपने सारे जीवनमें, कभी, कमी एक बार भी ऐसे पूर्ण, ऐसे गहरे दर्दका अनुभव नहीं किया जैसा उस दिन... ओह!... कुछ चीज हों... (माताजी अपना गला दबाती है) । और तब उसके

 

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अंतमें 'आनंद' । फिर गायब! मानों वह पोंछ दिया गया ''अभी नहीं, अभी नहीं, अभीतक समय नहीं हुआ ।'' मानों वह सब, वह सब जो इतना भयंकर है उसका अस्तित्व ही नहीं ।

 

     अंतमें, संभवत: - संभवत: - वह धरती ही थी (मुझे यह ठीक नहीं मालूम), ऐसा लगता तो है नहीं, क्योंकि चंद्रमा तो बहुत ठोस रूपसे विध्वस्त है । फिर भी एक बहुत प्रबल और बहुत यथार्थ भावना है कि यह बिलकुल सीमित चीज है, और वह इस तरह है । यानी, 'मिथ्यात्व'में है और अवास्तविक है । हम सब 'मिथ्यात्व' और 'अवास्तविकता' में हैं, इसीलिये चीजें ऐसी हैं । और जो बात मजेदार थी वह यह कि निर्वाणमें बच निकलना कोई समाधान न था, केवल एक उपचार और वह भी आशिक (पता नहीं, कैसे समझाया जाय), एक आशिक उपचार था, हम कह सकते हैं क्षणिक ।

 

    और तब, यह तो क्षणिक दौरा था । बादमें आता है लंबा मार्ग : हमें उत्तरोत्तर रूपांतरके काममें लगे रहना चाहिये । लगे रहना चाहिये, और तब अगले ही क्षण, वह जिसे श्रीअरविद अतिमानसिक सत्ता कहने हैं । मानों यह एकसे दूसरेमें देशातरण है।

 

    लेकिन यह सब कैसे बदलेगा? मुझे नहीं मालूम ।

 

जी हां, अभी उस दिन मुझे एक ठोस प्रत्यक्ष दर्शन हुआ था, कि सारी धरती एक काले चोगेके नीचे है - यह वही था जिसे आप 'मिथ्यात्व' और कहती हैं । वह एक ऐसी चीज थी जो समस्त पृथ्वीको ढके हुए थी ।

 

हां, हां !

 

      मैंने उसे बहुत ठोस रूपमें अनुभव किया; एक काला चोगा ।

 

हां, यह वही है ।

 

      वस, उसे सारे जगत् से खींचकर अलग कर देना चाहिये ।

 

 (कुछ देर मौनके बाद) मैं उसे कह नहीं सकती (उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता) । वह कुछ ऐसी चीज है जिसमें संत्रास, भय, पीड़ा -- और करुणा है । ओह! इतनी तीव्र.. इस शरीरने कभी, कभी ऐसा अनुभव

 

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नहीं किया । कभी नहीं । इसके सिवा उसने शरीरको ऐसी अवस्थामें डाल दिया, जो कुछ घंटोंके लिये बहुत... बहुत ही नाजुक हालतमें थी । और उसके बाद ऐसा हुआ मानों हर चीज -- प्रत्येक चीज -- एक 'स्मित' और चमकती 'रोशनी'के साथ आयी, ऐसा लगा (अगर बच्चोंकी भाषामें कहें तो) मानों प्रभु कह रहे हों : ''देखो, मैं हर जगह हू, देखो : मै हर चीजमें हू ।'' वह अविश्वसनीय था -- अविश्वसनीय... दोनोंके बीच कोई संचारण न था ।

 

     हां, तो उसी समय शरीर कह रहा था : ''यह कैसी बात है? क्या इसी प्रकार चल... ते... रह... ना पड़ेगा? हमें इसी तरह चलना पड़ेगा? संसार, मनुष्य, समस्त सृष्टिको इस तरह चलते रहना पड़ेगा? '' ... वह ऐसा लगत।. था... । मैं एकदम समझ गयी : हां, लोगोंने इसी- को अपनी भाषामें ''सनातन नरक'' कहा है । यह वही है । कोई ऐसा व्यक्ति रहा होगा जिसे यह प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त हुआ था ।

 

       और वे नमी उपाय - जिन्हें कृत्रिम कहा जा सकता है, जिनमें निर्वाण भी आ जाता है - बाहर निकलनेके सभी उपाय व्यर्थ है । उस मूर्खसे लेकर जो जीवनको समाप्त करनेके लिये आत्म-हत्या करता है, यह सभी मूर्खताओंमें सबसे बड़ी मूर्खता है, क्योंकि यह मामलेको बहुत अधिक बिगाड़ देती है, वहांसे लेकर निर्वाणतक (जिसके बारेमें कल्पना यह है कि हम जीवनसे बाहर चले जाते हैं), ये सब-के-सब उपाय व्यर्थ है । वे सब अलग- अलग स्तरके हैं, पर है सारे-के-सारे बिलकुल व्यर्थ । और फिर उसके बाद, उस समय जब तुम्हें सचमुच एक अनंत नरककी अनुभूति होती है, अचानक एकदम... (केवल चेतनाकी एक स्थिति, उसके सिवा कुछ नहीं), अचानक ?? ऐसी चेतनाकी स्थिति... जिसमें सब कुछ प्रकाश, भव्यता, सौंदर्य, प्रसन्नता, उन्मत्तता है... और हर चीज अनिर्वचनीय । तो यह ऐसा है : ''तुम यह रहे,'' और फिर फट! वह प्रकट होता है और झट गायब! और तब वह 'चेतना' जो देखती है, जो अपने-आपपर दबाव डालती है और कहती है : ''अब अगला कदम ।'' तो यह वही है । शरीरमें इन सब बातोंकी उपस्थिति थी... । सारे जीवनमें इसने कभी, कमी इतना दर्द नहीं सहा, और अब भी

 

    क्या यह, क्या यह उत्तोलक है?... पता नहीं । परंतु मुक्ति भौतिक है -- वह मानसिक बिलकुल नहीं है, शारीरिक है । मेरा मतलब यह है कि यह पलायन नहीं है, यह यहां है । इसकी प्रतीति बहुत जोरसे होती हैं !

 

   लेकिन शरीरके लिये कुछ बहुत ही कठिन घंटे बीते । और हमेशा,


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 हमेशा. वही । वह कहता है. ''अच्छा, बहुत अच्छा ।'' वह विघटनके लिये बिलकुल तैयार है या.. लेकिन उसका तो प्रश्न ही न था । वह प्रश्न न था... प्रश्न था 'उपचार' जाननेका.. और वह कैसा है? - हमारे साधनोंके द्वारा उसे व्यक्त करना असंभव है ।

 

   लेकिन इस कारण वह परदेके पीछे या छिपा हुआ, ऐसा-वैसा कुछ नहीं है वह उपस्थित है । क्यों? समग्रमें ऐसी कौन-सी चीज है जो तुम्हारे अंदरसे उस उपस्थितिको जीनेकी शक्ति हर लेती है ' पता नहीं । वह है, वह मौजूद है । बाकी सब, जिसमें मृत्यु तथा अन्य सब चीजें आ गयीं, सचमुच मिथ्यात्व बन जाता हो यानी, कोई ऐसी चीज जिसका अस्तित्व नहीं है ।

 

          जी हां, यह एक चोगा है जिसे उतार देना है ।

 

अगर इतना ही होता तब तो कुछ न होता!

 

     जी नहीं, मेरा मतलब है कि यह सब, यह भ्रांति एक चोगेकी तरह है जिसे धरतीपरसे उतार देना है ।

 

 हां, यह वही है । हां, यह वही है! परंतु क्या केवल धरती है? मुझे पता नहीं । लोग यह देखनेके लिये ऊपर जायंगे?

 

     मैं जो कुछ जानती हू, मुझे जो लगता है वह यह है कि यह चीज यहां घन रूपमें है. । यहां घनता है, यहां काम है । हों सकता है कि यह ... समस्त सौर मंडल, लेकिन मुझे पता नहीं 1

 

 ( मौन)

 

 लेकिन इसमेंसे कोई अकेला नहीं निकल सकता ।

 

जी हां... माताजी, उस दिन आपने कुछ कहा था । आपने कहा था : ''अब अपना ठीक स्थान निर्धारित करनेका समय आ गया है ।', आपने कहा था : ''जहांतक इस शरीरका सवाल है उसने अपना स्थान ले लिया है,'' लेकिन अभीतक आप औरोंसे यही करनेके लिये कहनेकी हिम्मत नहीं कर रही थीं । आपने कहा : ''अब अपना स्थान लेनेका समय आ गया है ।''

 

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हां, मुझे लगता है ।

 

           लेकिन ''अपना स्थान लेने'' से आपका क्या मतलब है?

 

 यह कि शरीर अभी जिस चेतनामें है, यह सब चीज अवास्तविक है ।

 

      अगर शरीरसे पूछा जाय तो वह कहेगा : ''मुझे मालूम नहीं कि मैं जीवित हू, मुझे मालूम नहीं कि मैं मृत हू ।'' क्योंकि सचमुच ऐसा ही ही है । कुछ क्षणोंके लिये उसे बिलकुल लगता है कि वह मृत है; अन्य क्षणोंपर उसे लगता है कि वह जीवित हैं । बात ऐसी है । वह अनुभव करता है कि बात ऐकांतिक रूपसे इसपर निर्भर है कि.. .कि हम 'सत्य' देखते खै या नहीं ।

 

 ( मौन)

 

 वह किसपर निर्भर है?

 

(मौन)

 

     वह, जैसा कि लोग कहते हैं, लिखते या अनुभव करते है, मैंने देखा है कि मानवजातिका एक बहुत बड़ा हिस्सा इस प्रत्यक्ष दर्शनसे बहुत ज्यादा घबराता है कि यह 'मिथ्यात्व' है और सब उसीकी ओर ले जाता है । मैं ऐसे लोगोंको जानती हू (उन्होंने मुझे लिखा था), जिन्हें अभी हालमें बहुत ज्यादा डर लगा क्योंकि उन्हें अचानक शक्तिने पकडू लिया, कोई ऐसी चीज थी जिसने उन्हें छूना शुरू किया. जीवनकी अवास्तविकताका बोध था वह । इससे पता लगता है कि जो रास्ता अभीतक तय करना है वह कितना बड़ा है । इसका मतलब है कि जल्दी समाधान पानेकी सभी आशाएं बचकानी है । जबतक कि... चीजें कोई और ही मोड न ले लें ।

 

     अगर वह उसी गतिसे चलता रहे जिस गतिसे अभीतक चलता आया है तो.... इसमें शताब्दियां और शताब्दियां और शताब्दियां लगेंगी... । तब अतिमानव केवल पड़ता होगा और उसके बाद बहुत-सी दूसरी चीजें होगी

 

    मैं जब कभी इस विषयमें सोचता हूं, मुझे हमेशा यही लगता है कि एकमात्र समाधान यह है कि आपका शरीर ज्योतिर्मय

 

     हो, जिसे सब देख सकें । सब लोग आ-आकर उसे देखें-- आकर देखें कि भगवान् कैसे है!

 

(माताजी हंसती हैं) यह वास्तवमें बहुत सुविधाजनक होगा!

 

      यह उनकी सभी धारणाओंको उलट-पुलट कर देगा.

 

 हां, निश्चय ही! यह इतना सुविधाजनक होगा । क्या ऐसा होगा?. उसके बारेमें मैं तुम्हारे साथ पूरी तरह सहमत हू । और मुझे बहुत खुशी होगी, वह चाहे कोई भी हो, इसकी परवाह नहीं कि कौन, मुझे इसकी तनिक भी इच्छा नहीं है कि वह मैं ही होऊं!

 

         आओ और भगवान्को देखो, वे कैसे है!

 

हां, कैसे हैं ' (माताजी बहुत देरतक टकटकी लगाये देखती रहती है ।)

 

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